madhyakaaleen bharat mein bainking pranalee kaisee thi : मध्यकालीन भारत में बैंकिंग प्रणाली कैसी थी ?
मध्यकालीन बैंकिंग व्यवस्था —
मध्यकालीन अर्थव्यवस्था के अंतर्गत उत्पादन , उत्पादक के उपभोग तक ही सीमित नहीं था तथा वस्तु – उत्पादन एवं मौद्रिक अर्थव्यवस्था का काफी विकास हो चुका था । 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में पूंजीगत संबंधों का मध्य भारत में विकसित होना सामयिक तत्वों द्वारा स्पष्ट प्रमाणित होता है । अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भू – राजस्व एवं बाजार व्यवस्था संबंधी नियमों के आधार पर मोरलैंड ने यह निष्कर्ष निकाला की इस काल में भू – राजस्व का संकल्प नकदी मैं होता था जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत में पूंजीगत संबंधों का जाल बिछा चुका था । ( madhyakaaleen bharat mein bainking pranalee kaisee thi )
मुगल साम्राज्य के एक विस्तृत क्षेत्र में भू – राजस्व का संकलन वस्तु के रूप में ना होकर नकदी के रूप में होता था । मुद्रा के इतनी बड़ी मात्रा में हो रहे आदान – प्रदान से व्याज पर रुपए उधार देने तथा सूदखोरी के प्रचलन के विषय में स्वयं अंदाजा लगाया जा सकता है । तत्कालीन समय में ग्रामीण लोगों को अर्थात किसानों , मजदूरों , छोटे – छोटे व्यापारियों की बचत का एक बड़ा भाग लगान के रूप में नगद जमा करवा दिया जाता था । किसानों के ऋण ग्रस्त रहने का प्रमुख कारण लगान देने की आवश्यकता अथवा अतिरिक्त करकी मांग को पूरा करने की व्यवस्था थी । वस्तुत भू – राजस्व किसानों की ऋण ग्रस्तता का प्रमुख कारण था । भू – राजस्व की मांग को पूरा करने के लिए किसान को महाजनों से रुपया उधार लेना पड़ता था ।
किसानों द्वारा ऋण लेकर भू – राजस्व की अदायगी की सामान्य आवश्यकता की साथ ही ग्रामीण – समाज में ऋण लेने – देने की उपयोगिता अन्य कार्यों के लिए भी व्याप्त थी , जिसके तहत उधार का संबंध सीधा व्यापार से था । महाजन अथवा साहूकार किसानों को रेल के रूप में नगद राशि देता था , परंतु उसकी अदायगी अनाज के रूप में वसूल करता था ।
इस प्रकार इस व्यवस्था से महाजनको दोहरा लाभ प्राप्त होता था । प्रथम , फसल के समय पर अपने कर्ज की वसूली तथा द्वितीय , अनाज प्राप्त करने का अग्रिम दावा जिसके द्वारा वह बाजार में मांग के अनुसार अनाज के मूल्यों में वृद्धि करने में सफल होता था । मध्यकालीन बैंकिंग प्रणाली का विवेचन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है —
राज्य द्वारा तकावी ऋण देना —
सल्तनत काल में राज्य द्वारा किसानों को तकावी ऋण दिया जाता था राज्य द्वारा किसानों को कृषि के लिए दिए जाने वाले कर्ज को तकावी ऋण के नाम से जाना जाता था । सर्वप्रथम मोहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल ( 1325 -51 ई. ) मैं किसानों को कृषि उत्पादन में वृद्धि करने की उद्देश्य से अग्रिम धन प्रदान किया गया था । इस प्रकार किसानों को राज्य के द्वारा ऋण देने की व्यवस्था सर्वप्रथम प्रशासनिक आर्थिक नीति का भाग बनी ।
मोहम्मद तुगलक के शासन काल के प्रथम दशक में अकाल पड़ने पर दिल्ली के आस – पास के क्षेत्र के किसानों के लिए कुए खुदवान एवं धन तथा बीज देने का आदेश दिया गया । इसके बदले में राज्य के द्वारा उत्पादन के एक हिस्से पर दावा किया गया । सुल्तान ने कर्मचारियों की अलग से नियुक्ति की , जिसका कार्य किसानों को अग्रिम ऋण उपलब्ध कराना था । बरनी के अनुसार मोहम्मद तुगलक के शासनकाल में शाही खजाने से 70 टंकी प्रत्येक किसान को तकावी के रूप में दिए गए । ( madhyakaaleen bharat mein bainking pranalee kaisee thi )
मुगल काल में राज्य द्वारा ऋण देना —
मुगल काल में भी किसानों को तकावी ऋण दिए जाते थे । इस युग में किसानों को बीज तथा पशु खरीदने के लिए शाही खजाने से तकावी ऋण उपलब्ध कराए गए । सामान्यत तकावी का भुगतान ग्रामीण मुखिया , चौधरी , पटेल अथवा वंशानुगत अधिकारी द्वारा किया जाता था जोकि इस ऋण की वसूली की जिम्मेदारी भी लेता था । तकावी की अदायगी का उत्तरदायित्व स्थानीय महाजन को भी दिया जाता था जोकि किसानों की ओर से राज्य को जमानत देता था ।
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कभी-कभी राज्य देश से महाजन एवं परगना अधिकारी अपने साधनों से किसानों को तकावी देते थे जिसका दावा बे सरकार से करते थे । इस प्रकार के तकावी ऋण पर किसानों को संभवत ब्याज भी अदा करना पड़ता था । यासीन के अनुसार किसानों को तकावी में प्राप्त राशि एक रुपए पर दो आना के हिसाब से प्रतिमा अथवा प्रति फसल के लाभ ( ब्याज ) के रूप में देना पड़ता था । गन्ने के क्षेत्र पर प्रति 2 बीघा पर ₹2 देने पड़ते थे ।
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