गुप्तकालीन सामाजिक व्यवस्था कैसी थी ?
दोस्तों आज हम गुप्तकालीन सामाजिक व्यवस्था कैसी थी के बारें में चर्चा करेंगे तो दोस्तों गुप्तकाल में समाज चार वर्णों ( ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ) मैं विभक्त था, जिसकी सर्वोच्च स्थिति ब्राह्मणों की थी। शूद्र पुरुष व ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न चांडाल जाति का उद्भव इसी काल में हुआ । इस समय समाज में शूद्र वर्ग को हीनता की दृष्टि से देखा जाता था, जिसका उल्लेख वराहमिहिर ने बृहत संहिता में लिखा है कि चारों वर्णों के लिए भिन्न-भिन्न बस्तियां होनी चाहिए । इनके अनुसार ब्राह्मण के घर में पांच, छत्रिय के घर में चार , वैश्य के घर में तीन, शुद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए । गुप्त काल में ब्राह्मणों की पवित्रता का अत्यधिक बल दिया जाता था। गुप्तकालीन ग्रंथों के अनुसार ब्राह्मण को शूद्र व्यक्ति का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे आध्यात्मिक बल घटता था । तो चलिए आगे और जानते है की कालीन सामाजिक व्यवस्था कैसी थी
हस्पति ने संकटकाल में ब्राह्मणों को दासों व शूद्रों का अन्न खाने की अनुमति प्रदान की है । इसी प्रकार क्षत्रियों के लिए भी संकटकाल में दूसरा कर्म अपनाने की छूट प्रदान की गई है ।
गुप्त काल में मनु ने शूद्रों की सेवा वृत्ति पर अधिक बल दिया है । इस काल में अनुलोम विवाहों के प्रचलन के कारण अनेक मिश्रित जातियों का उदय हुआ, जिसमें प्रमुख रुप से अंबाष्ट , कायस्थ इत्यादि हैं । गुप्ता अभिलेखों में प्रथम कायस्थ शब्द का उल्लेख पहली बार मिलता है, तो कायस्थों का वर्णन एक वर्ग ( पेशेवर लेखक ) के रूप में सर्वप्रथम याज्ञवल्क्य स्मृति में मिलता है तथा कायस्थों का एक जाति के रूप में पहला वर्ण गुप्तोत्तर काल की ओसनस स्मृति में मिलता है । गुप्त वंश के शासकों ने मंदिरों एवं पंडितो को सबसे ज्यादा village अनुदान में दिए थे ।
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गुप्तकालीन दास प्रथा
गुप्तकाल में दास प्रथा प्रचलित थी। उन्हें केवल अपवित्र कार्यों में ही लगाया जाता था । नारद ने सर्वप्रथम दास मुक्ति का विधान स्थापित किया था । जिसमें कोई दासी अपने स्वामी के पुत्र को जन्म दे देती थी तो उसे दासत्व से मुक्त किया जा सकता था । याज्ञवल्क्य नेवी दासत्व से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय बताया है तथा उनके हित में समाज एवं प्रशासन को कार्य करने को कहा गया है । रामशरण शर्मा के अनुसार सामंतवाद के कारण गुप्त काल में दास प्रथा कमजोर हुई, तो वही दातों के प्रकार-
1. बड़वहत दास, 2. दायादुपगत, 3. उपागत,
4. ध्वजाहूत, 5. पणजित, 6. आहित,
7. दत्त्रिम ।
गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा
गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा में पहले की अपेक्षा गिरावट आई । संहिताओं मैं जन्म से मृत्युपर्यंत स्त्री को पुरुष के नियंत्रण में रहने के निर्देश दिए गए थे और इसी पालन कराने के लिए धार्मिक आख्यानों का सहारा लिया गया। इस समय बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन प्रारंभ हो चुका था, तो वहीं महिलाओं का विवाह 12 से 15 वर्ष में हो जाता था तथा महिलाओं का उपनयन संस्कार बंद हो गया ।
ध्यान रहे – भारत में पर्दा प्रथा का गुप्त काल में उल्लेख मिलता है, तो वहीं पर्दा प्रथा उत्तर भारत में थी , दक्षिणी भारत में इसका अस्तित्व नहीं था । कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम् में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता कहा है ।
गुप्त काल में विधवाओं की स्थिति अत्यंत शौचनीय थी । उन्हें श्वेतवस्त्र धारण करने होते थे तथा जीवन भर ब्रम्हचर्य का पालन करना होता था । वैश्याओं को गणिकाय एवं वृद्ध वैश्याओं को कुट्टनी कहा जाता था । अमरकोष के अनुसार गुप्तकालीन समाज में देवदासी प्रथा प्रचलित होने के चिन्ह स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं ।
गुप्तकालीन कृषि एवं भूराजस्व व्यवस्था
गुप्तकाल में आय का प्रमुख स्रोत भूमिकर ही था, जिसकी दर सामान्यत: 1/6 थी । इसे भाग कहा जाता था । भोग नामक एक अन्य कर था , जिसमें राजा को प्रतिदिन फल, फूल, सब्जी, आदि भेट के रूप में दी जाती थी । अन्य प्रमुख कर निम्नलिखित हैं-
• उद्रग कर – स्थाई कृषकों से लिया जाने वाला कर ।
• उपरिक कर- अस्थाई कृषकों से लिया जाने वाला कर ।
• विष्टी ( बेगार ) – बेगार ।
• बलि – स्वैच्छिक कर ।
• शुल्क – चुंगीकर ।
• हरिलाकर – हलों पर लगने वाला कर ।
• अवलगत – सेना के युद्ध अभियान के दौरान ग्रामीणों से वसूल की जाने वाली खाद्य सामग्री ।
• गुल्म – वन मैं उत्पन्न सामग्री पर लगने वाला कर ।
• भूतोपांतप्रत्याय – राज्य में उत्पन्न एवं आयात की जाने वाली वस्तुओं में लगने वाला कर ।
• मेय – अन्न के रूप में प्राप्त कर ।
• हिरण्य – धन के रूप में प्राप्त कर ।
• अक्ष्यनीवि – भू-राजस्व के स्थायी दान को कहते थे ।
गुप्तकाल में भूमि के प्रकार
• क्षेत्र – खेती के लिए उपयुक्त jameen ।
• वास्तु – आवास के लिए योग्य भूमि ।
• गोचर – चारागाह ।
• खिल – जो जमीन जोती नहीं जाती है ।
• अप्रहत – जंगली भूमि ।
• अप्रदा – ऐसीविवादास्पद भूमि जिसे किसी को नहीं दिया गया हो ।
• ब्रह्मदेय – ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए राज्य द्वारा प्रदत्त कर भूमि ।
• भूमि माप की इकाई – नल, निवर्तन, कुल्यावाप, द्रोण, एवं पाटक ।
ध्यान रहें –
धुवाधिकरण राज्य कर वसूल करने वाला विभाग था, जिसके अधीन निम्नलिखित कर्मचारी थे शौलिक ( भूमि कर वसूल करने वाला ) गौल्मिक ( जंगलों से राजस्व प्राप्त करने वाला ) , तलवाटक , गोप, करणिक और लेखक ।
गुप्तकाल में सिंचाई
गुप्तकाल में सिंचाई के साधनों में अरघट ( रहट ) का उल्लेख मिलता है । बाणभट्ट ने से तुला यंत्र कहां है तो हेनसांग ने इसे घंटीयंत्र कहां है ।
गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य
गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य समुन्नत रूप से था, जिसके कारण साम्राज्य में विकास एवं उन्नति दिखाई देती थी । इसी कारण इस युग को स्वर्ण युग की संज्ञा दी जाती है । इस समय महाजनी व्यवस्था प्रचलन में थी। गुप्तकाल में व्यापारियों के प्रमुख को ‘ श्रेष्ठि’ नाम से जाना जाता था । ऋण से प्राप्त ब्याज को दूषित धन / काला धन कहा गया । गुप्तकाल में 15% ब्याज प्रतिवर्ष को न्याय संगत माना है ।
गुप्तकाल के चांदी के सिक्कों को रूप्यक कहते थे । चंद्रगुप्त द्वितीय ने पाटलिपुत्र के साथ उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाया । उज्जैन व्यापार की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था, जिसने पाटलिपुत्र को पीछे छोड़ दिया था ।
अन्य नगरों में भड़ौच ( गुजरात ) , प्रयाग , विदिशा ( मध्य प्रदेश ) ताम्रलिप्ती , मथुरा, अहिच्छत्र ( बरेली ) , कौशाम्बी जैसे प्रमुख व्यापारिक नगर थे ।
गुप्तकाल में भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच व्यापारिक संबंधों में गिरावट आ गई । इसका प्रमाण हमें कुमारगुप्त प्रथम कालीन मंदसौर अभिलेख से मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि पट्टवाय – श्रेणी ( रेशम बुनकर ) लाट विषय से अपना काम छोड़कर पश्चिम मालवा में आ बसी ।
विदेशी व्यापार की दृष्टि से इस काल में दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले –
1. रोमन व्यापार का पतन
2. दक्षिण भारत के तीन बंदरगाहों- मुजरिस, अरिकमेडू, कावेरी पत्तनम का पतन हो गया ।
इस समय भारतीय व्यापार रोमन साम्राज्य के स्थान पर बेजनटाइन साम्राज्य से प्रारंभ होने लगा । उसे मसालों व रेशम का निर्यात किया जाता था ।
उस समय पूर्वी तट पर सर्वाधिक प्रसिद्ध बंदरगाह तमरलिप्त था जिससे कम्बोडिया , बर्मा मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो के साथ व्यापार होता था तथा पश्चिमी तट पर स्थित भडोच चौल कल्याण कैम्बे प्रमुख बंदरगाह थे , जहां से पश्चिमी देशों के साथ व्यापार होता था । भारत से कपड़े, बहुमूल्य पत्थर , हाथी दांत की वस्तुएं , गरम मसाले , नारियल , सुगंधित द्रव्य , नील , दवाएं निर्यात की जाती थी तो पश्चिमी जगत से भारत में आयातित सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु – मदिरा , बहुमूल्य रत्न , औषधियां , कांच के बर्तन आदि थे ।
देश का मुख्य व्यवसाय कपड़े मुन्ना तथा वाराणसी मैं देश के सर्वोत्तम रेशमी वस्त्र बुने जाते थे तो वही दशपुर की साड़ियां व चद्दर प्रसिद्ध थी तथा कब कपदरककौड़ियों को कहते थे जो दैनिक लेन-देन में काम आती थी चिनाशुकचीनी रेशमी वस्त्रों को कहते थे व पैठन_गुप्त काल में सुदूर पश्चिम में प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था
प्राचीन भारत में सर्वाधिक सोने के सिक्के गुप्त काल में प्रचलित हुए तथा दर्ब _चांदी एवं तांबा का मिश्रित सिक्का था , तो वही कृतांत परशु ( युद्ध परशु ) शौली के सिक्के केवल समुद्रगुप्त ने जारी किए । गुप्त काल में स्वर्ण एवं चांदी का अनुपात 1 : 16 था । अब तक गुप्त साम्राज्य के सिक्कों की 16 निधिया प्राप्त हुई , जिनमें सबसे पहले प्राप्त कोलकाता की कालीघाट निधि है , तो वही बयाना ( भरतपुर, राजस्थान ) से गुप्तों की सबसे महत्वपूर्ण एवं सर्वाधिक निधि प्राप्त हुई है ।
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गुप्तकालीन सामाजिक व्यवस्था कैसी थी
ध्यान रहें – बयाना निधि में सर्वाधिक मुद्रा चंद्रगुप्त द्वितीय की है । लगभग 2000 वर्ष पहले वाराणसी एक प्रसिद्ध शिल्प केंद्र